Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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मनोहर ऐसे उद्दीप्त उत्साह से अपने काम में दत्तचित्त था मानो उसकी युवावस्था का विकास हो गया है। धान के पोलों के ढेर लगते जाते थे। न आगे ताकता था, न पीछे, न किसी से कुछ बोलता था, न किसी की कुछ सुनता था, न हाथ थकते थे, न कमर दुखती थी। बलराज ने चिलम भरकर रख दी। तम्बाखू रखे-रखे जल गया। बिलासी खाँड का रस घोलकर सामने लायी। उसने उसकी ओर देखा तक नहीं, कुत्ता पी गया। कुआर की धूप थी, देह से चिनगारियाँ निकलती थीं, पसीने की धारें बहती थीं; किन्तु वह सिर तक न उठाता था। बलराज कभी खेत में आता, कभी पेड़ के नीचे जा बैठता, कभी चिलम पीता। एक ही अग्नि दोनों के हृदय में प्रज्वलित थी, एक ओर सुलगती हुई, दूसरी ओर दहकती हुई। एक ओर वायु के वेग से चंचल, दूसरी ओर निर्बलता से निश्चल। एक ही भावना दोनों के हृदय में थी, एक में उद्दाम-उच्छृंखल, दूसरे में गम्भीर और स्थिर।

दोपहर हुई। बिलासी ने आकर डरते-डरते कहा– चबेना कर लो।

मनोहर ने सिर झुकाये हुए जवाब दिया– चलो आते हैं।

एक घण्टे के बाद बिलासी फिर आकर बोली– चलो, चबेना कर लो, दिन ढल गया। क्या आज ही सब खेत काट लोगे?

मनोहर ने कठोर स्वर में कहा– हाँ, यही विचार है। कौन जाने, कल आये या न आये!

जैसे किसी भरे हुए घड़े में एक कंकर लग जाय और पानी बह निकले, उसी भाँति बिलासी के हृदय में एक चोट-सी लगी और आँसू बहने लगे। वह रह-रह कर हाथ मलती थी। हाय! न जाने इन्होंने मन में क्या ठान लिया है?

वह कई मिनट तक खड़ी रोती रही। परिणाम की भयावह विकराल मूर्ति उसके नेत्रों के सामने नाच रही थी। मुँह खोले उसे निगलने को दौड़ती थी और शोक! इस मूर्ति को उसने अपने हाथों रचा था। अन्त में वह मनोहर के सम्मुख बैठ गयी और उसकी ओर अत्यन्त दीन भाव से देखकर बोली, हाथ जोड़कर कहती हूँ, चलकर चबेना कर लो। तुम्हारे इस तरह से गुमसुम रहने से मेरा कलेजा दहल रहा था। तुमने क्या ठान ली है, बोलते क्यों नहीं?

मनोहर– जाकर चुपके से बैठो। जब मुझे भूख लगेगी तब खा लूँगा।

बिलासी– हाय राम! तुम क्या करने पर तुले हो?

मनोहर– करूँगा क्या? कुछ करने ही लायक होता तो आज यह बेइज्जती नहीं होती। जो कुछ तकदीर में है वह होगा।

यह कहकर वह फिर अपने कार्य में व्यस्त हो गया। कोई किसी से न बोला। बलराज टालमटोल करता रहा और बिलासी उदास बैठी कभी रोती और कभी अपने को कोसती, यहाँ तक कि सन्ध्या हो गयी। तीनों ने धान के गट्ठे गाड़ी पर लादे और लखनपुर चले। बलराज गाड़ी हाँकता था और मनोहर पीछे-पीछे उच्च स्वर से एक बिरहा गाता हुआ चला आता था। राह में कल्लू अहीर मिला, बोला, मनोहर काका आज बड़े मगन हो। मनोहर का गाना समाप्त हुआ तो उसने भी एक बिरहा गाया। दोनों साथ-साथ गाँव में पहुँचे तो एक हलचल-सी मची हुई थी। चारों ओर चरावर की ही चर्चा थी। कादिर के द्वार पर एक पंचायत सी बैठी हुई थी। लेकिन मनोहर पंचायत में न जाकर सीधा घर गया और जाते-ही-जाते भोजन माँगा। बहू ने रसोई तैयार कर रखी थी। इच्छापूर्ण भोजन करके नारियल पीने लगा। थोड़ी देर में बलराज भी पंचायत से लौटा। मनोहर ने पूछा, कहो क्या हुआ?

बलराज– कुछ नहीं, यह सलाह हुई है कि खाँ साहब को कुछ नजर-वजर दे कर मना लिया जाय। अदालत में सब लोग घबड़ाते हैं।

मनोहर– यह तो मैं पहले से ही समझ गया था। अच्छा जाकर चटपट खा-पी लो। आज मैं भी तुम्हारे साथ रखवाली करने चलूँगा। आँख लग जाय तो जगा लेना।

एक घंटे बाद दोनों खेत की ओर चलने को तैयार हुए, मनोहर ने पूछा, कुल्हाड़ा खूब चलता है न?

बलराज– हाँ, आज ही तो रगड़ा है।

मनोहर– तो उसे ले लो।

बलराज– मेरा कलेजा थर-थर काँप रहा है।

मनोहर– काँपने दो। तुम्हारे साथ मैं भी तो रहूँगा। तुम दो-एक हाथ चलाके वहाँ से लम्बे हो जाना और सब मैं देख लूँगा। इस तरह आके सो रहना, जैसे कुछ जानते ही नहीं। कोई कितना ही पूछे, डरावे धमकावे मुँह मत खोलना। मैं अकेले ही जाता, मुदा एक तो मुझे अच्छी तरह सूझता नहीं, कई दिनों से रतौंधी होती है, दूसरे हाथों में अब वह बल नहीं कि एक चोट में वारा-न्याय हो जाय।

मनोहर यह बातें ऐसी सावधानी से कह रहा था, मानो कोई साधारण घरेलू बातचीत हो। बलराज इसके प्रतिकूल इसके शंका और भय से आतुर हो रहा था। क्रोध के आवेश में वह आग में कूद सकता था, किन्तु इस पैशाचिक हत्याकाण्ड से उसके प्राण सूख जाते थे।

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